बेटियों की बोटी नोंचने में अव्वल है यूपी

बेटियों की बोटी नोंचने में अव्वल है यूपी

'चार का चौधरी, पांच का पंच, जिसके छह लड़के वह न पूछे कौन सरपंच' वाली कहावत आज  पुरुष प्रधान समाज में कन्या भ्रुरण हत्या के लिए जिम्मेदार है। लखीमपुर खीरी में पुलिसकर्मियों की दरिंदगी ताजा उदाहरण है। एक बेटी के साथ थाने में बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। हत्या को आत्महत्या में बदलने के लिए शव को पेड़ पर लटका दिया। बेटियों की बोटी समाज में और गर्भ  में दोनों जगह धड़ल्ले से नोंची जा रही हैं। इसका खुलासा हाल ही में हुई सदी की दूसरी जनगणना के आंकड़ों से हुआ है। 0 से 6 वर्ष की लड़कियों के मामले में राष्टÑीय स्तर पर 13 प्वायंट की गिरावट आई है तो यूपी में यह 17 तक पहुंच गई है। प्रख्यात विदेशी स्वास्थ्य पत्रिका लांसेट ने भी  लिंगानुपात के इस भयावह स्वरूप को उजागर किया है।
बलात्कार के मामले हों या नहरों, सड़कों, रेलवे लाइनों के किनारे युवतियों के शवों का अज्ञात व नग्न अवस्था में मिलना। सूबे के हर जिले में चार-छह घटनाएं हर माह आम हो गई हैं। दहेज के लिए भी  बेटियों की हत्या लगातार जारी है। जागरूकता के तमाम प्रयास नजरअंदाज हो रहे हैं। यहां तक कि ऐसे मामलों में औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन बनी हुई है। समाज से कानून का खौफ तो जैसे काफूर हो गया है। यह हालात तो उन बेटियों के साथ हैं, जिन्हें पाल पोसकर कुछ समझने लायक बना दिया गया है। लेकिन उन बेटियों की दशा तो और  ज्यादा चिंताजनक है, जिन्होंने इस दुनिया में कदम ही नहीं रखा है। इन्हें मां की कोख में ही मिटाया जा रहा है। लखनऊ की समाजसेवी संस्था वात्सल्य ने बागपत जिले के एक गांव की दर्द भरी  कहानी उजागर की है। हाल ही में संपन्न हुई जनगणना के अनुसार यहाँ प्रति हजार बालकों के मुकाबले 837 बालिकाएं हैं। खेकड़ा ब्लॉक के लहचौड़ा ग्राम पंचायत में एक महिला के गर्भपात  की कहानी दिल दहला देने वाली है। वह महिला अब दुनियां में नहीं है। उसकी मौत की वजह पाँच बेटियों के बाद छठवीं बेटी के जन्म से पूर्व भ्रूण  परीक्षण कर अबार्शन कराना रहा। इसके चलते महिला की मृत्यु हो गई। लड़के की चाहत में बार-बार के अबार्शन से महिला की तो मृत्यु हो गई, लेकिन परिवारी अब उसकी संतानों को लेकर यही कहते हैं खुद तो मर गई हमारे ऊपर यह बोझ और छोड़ गई। बेटियों के प्रति इस इलाके की सोच को यहां की इस लोकोक्ति से आसानी से समझा जा सकता है कि 'आजा बेटी लेले फेरे, ये मरेगा तो बहुतेरे' चर्चित है। इस कहावत से ही मर्म समझा जा सकता है। हर समाज में बेटियों पर होने वाले अत्याचार की कहानी आम है। दर्दनाक यह है कि बेटियों को मिटाने में सास या बहू के रूप में वह वर्ग भी अहम भूमिका निभाता है जो कभी  खुद किसी की बेटी रही हैं। समाज में बढ़ते दुराचार के लिए लड़कियों की लगातार घटती तादाद भी  जिम्मेदार है। अनेक लोेग पश्चिम बंगाल से लड़कियां लाकर अपना घर बसाने लगे हैं। इन हालातों से समाज की एक नई तस्वीर सामने आने लगी है। बदली मान्यताएं, खान-पान व पर्यावरण में आयातित महिलाओं का टिक पाना संभव  नहीं है।
अल्ट्रासाउण्ड सेंटर बन रहे मुख्य वजह    आंकड़ों की बात करें तो 0 से 6 वर्ष की बालिकाआें का सैक्स रेशियो राष्टÑीय स्तर पर 13 प्वायंट घटा है, वहीं यूपी का 17 प्वाइंट घटा है। 68 हजार माताएं हर दिन भगर्भपात के चलते मौत की शिकार हो जाती हैं। देश में उचित प्रसव संसाधनों के अभाव  में छह लाख बालिकाओं की मृत्यु जन्म के समय हो जाती है। इसमें से करीब डेढ़ लाख अकेले यूपी में मरती हैं। इस स्थिति का एक कारक अल्ट्रासाउण्ड सेंटरों को भी  माना जा रहा है। पापुलेशन रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट के अनुसार जिन शहरों में अल्ट्रासाउण्ड सेंटर बढेÞ हैं, वहाँ कन्याओं की  हत्या का रेसियो उतनी ही तेजी से बढ़ा है। इसका मुख्य कारण नियंत्रण के लिए बनाए लिंग चयन प्रतिषेध अधिनियम 1994 का ठीक से प्रभावी न होना है। प्रदेश में लिंग चयन प्रतिषेध अधिनियम प्रभावी बनाए रखने को बनी एडवायजरी कमेटी की सदस्य एवं चिकित्सक डा. नीलम सिंह की मानें तो अल्ट्रासाउण्ड के समय मरीज के विवरण वाले फार्म-एफ भी  अल्ट्रासाउण्ड केन्द्रों पर ठीक से नहीं भरे जाते। उन्होंने कई बार जांच में इनमें खामियां पकड़ी हैं। उनके अनुसार कोई परचून वाला भी  अल्ट्रासाउण्ड केन्द्र चलाने का लाइसेंस ले सकता है। अल्ट्रासाउण्ड केंद्रों के निरीक्षण में यह तथ्य भी  उजागर हुआ है कि इसके एक-एक चिकित्सक आधा-आधा दर्जन केन्द्रों का संचालन कर रहा है। कई मामलों में तो 30-40 किलोमीटर दूरी पर अपना क्लीनिक चलाने वाले चिकित्सक दूसरों के केन्द्रों को चला रहे बताए जाते हैं। कानूनी पेंच यह भी  है कि कोई भी एमबीबीएस डाक्टर किसी रेडियोलॉजिस्ट से चंद माह अल्ट्रासाउण्ड मशीन के संचालन प्रशिक्षण का प्रमाण-पत्र लेकर रेडियोलॉजी का भी  एक्सपर्ट बन जाता है। इसी का परिणाम है कि छोटे-छोटे जिलों में भी  केन्द्र खुल गए हैं। जिला स्तर पर भी  पीसीपीएनडीटी एक्ट को प्रभावी बनाने के लिए कमेटी बनी हैं। इसमें डीएम केवल आॅब्जर्वर की भूमिका में रहने चाहिए, लेकिन कई जिलों में डीएम ही कमेटी के अध्यक्ष हैं। डीएम की अध्यक्षता में बनी कमेटी में अन्य एनजीओ व स्वास्थ्य सेवाओं से जुडेÞ सदस्य कुछ बोल ही नहीं पाते। बोलें तो कोई सुनने वाला नहीं।
कुदरत भी  बालकों के   साथ
कन्याओं के कत्ल की यह स्थिति इन हालात में है, जबकि लड़के कुदरती रूप से ज्यादा पैदा होते हैं।  प्राप्त आंकड़ों के अनुसार आम तौरपर देश में 1000 बच्चों में 954 लड़के पैदा होते हैं। राष्टÑीय परिदृष्य में 1901 में चाइल्ड रेशियो 972 था जो 2011 की जनगणना में 940 रह गया है। उत्तर प्रदेश में यह पहले से ही कम रहा। 1901 में यह 942 था जो 2011 में 908 रह गया है। उत्तर प्रदेश के ज्यादातर जिलों में कन्याओं की संख्या में लगातार कमी हो रही है। ताजा आंकड़ों के हिसाब से प्रति एक हजार बालकों पर हरदोई में बालिकाओं की संख्या में 51, बलिया में 45, सिद्धार्थनगर में 42, कुशीनगर में 38, बहराइच में 37, सोनभद्र में 36, बिजनौर में 35, आजमगढ़ में 33, पीलीभीत में 31, आगरा में 31 व वाराणसी में 23 तक घटी है। बाकी जगहों पर भी  गिरावट हुई है, लेकिन वहाँ यह कम है। 1 july 2011 ki riport