*यू० जी०सी०के कारनामे*
* सरकार की करतूत:*
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विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन सरकार ने किस उद्देश्य से किया? इसका उत्तर संवैधानिक उपबंधों के अधीन कागजों पर अवश्य द्रष्टव्य है किन्तु उसकी करतूतों का चिट्ठा खोलने की हिम्मत न तो किसी मंत्रालय के पास है और न ही विश्विद्यालयों के पास।
1998 से लेकर अब तक न जाने नियमों में कितने परिवर्तन इस आयोग ने कर डाले -कभी अपने-अपनों को शिक्षा जगत में घुसाने के निमित्त तो कहीं ऊपर के आकाओं के चेले-चपाटों और विश्विद्यालयों के मठाधीश आचार्यों के वैशाखनंदन स्वरूप में उपजे पुत्र-पुत्रियों को डायस पर खड़ा करने हेतु।
सबसे पहले महाविद्यालय/विश्वविद्यालय में प्रवक्ता पद हेतु नेट/जे०आर०एफ०प्रमाणपत्र को अनिवार्य बनाया गया।नेट की परीक्षा आई०ए०एस० जैसी कठिन थी,फिर अपनों को जगह दिलाने के बहाने इसको पूरा वस्तुनिष्ठ बनाया गया।फिर पी०एच०डी० को नेट के समतुल्य बताकर 2002 तक, पुनः बढ़ाकर 2009 तक पी०एच०डी०धारकों को नेट से छूट का प्रावधान बनाया गया। पुनः नेट की अनिवार्यता लागू हुई और अब तात्कालिक कानून के तहत 2021 तक डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता बनने हेतु नेट के साथ पी०एच०डी० को अनिवार्य बना दिया गया।इस प्रावधान में विश्विद्यालयों में प्रवक्ता बनने हेतु सिर्फ पी०एच०डी० होना अनिवार्य है,नेट वांछनीय। अर्थात विश्विद्यालयों की आबोहवा में खड़े होते ही प्रतियोगी/अभ्यर्थी नेट उत्तीर्ण मान लिया जाएगा,उसकी प्रतिभा बिना नेट पास किये ही द्विगुणित हो जाएगी।
अब पुनः विश्विद्यालयों में प्रवक्ता पद की नियुक्ति की अर्हता हेतु नेट उत्तीर्ण अभ्यर्थी को 7 अंक और पी०एच०डी० धारक को 30 अंक निर्धारित कर नेट और पी०एच०डी०की समतुल्यता पर तेजाब डाल दिया है और नेट जैसी अखिल भारतीय परीक्षा को ड्राइविंग लाइसेंस हेतु आहूत की जाने वाली औपचारिक परीक्षा बनाकर रख दिया है।यू०जी०सी०जैसी संस्था का निर्माण कर अरबों रुपये सरकारी कोष से व्यर्थ लुटाने का क्या औचित्य है? 30 अंकों के सम्मुख 7 अंकों की बाजारू कीमत रखने वाली संस्था को समाप्त क्यों नहीं कर देते सरकार?
एक नमूना इस तुगलकी संस्था का और देखिए- प्रदेश के समस्त महाविद्यालयों में प्रवक्ता पद हेतु उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग व लोकसेवा आयोग द्वारा लिखित परीक्षा (कठिन प्रश्नपत्र) में उत्तीर्ण होकर मेरिट का आधार सुनिश्चित किया गया है।इसमें चयनित अध्यापक प्रदेश के किसी भी कोने में खाली जगह पर नियुक्त होंगे चाहे वह महोबा का जंगल हो या अरावली पर्वत। परंतु प्रयाग केंद्रीय विश्विद्यालय हो या राजधानी का लखनऊ विश्वविद्यालय ;वहां पर बिना किसी लिखित परीक्षा के सिर्फ मौखिकी के आधार पर चयन प्रणाली को अमल में लाया जाता है।इस मौखिकी की आड़ में गुरु/गुरुआईन सेवा और नोटों का बंडल (न्यूनतम 25 लाख व आरक्षित वर्ग हेतु 18 से बीस लाख) अधिमान्य अर्हता के पार्श्व में शामिल है।
आयोग की परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के पीछे प्रतिभागी की मेहनत,लगन,सैकङों पुस्तकों व पुस्तकालयों में बहाये गए पसीने का परिणाम होता है।और इस प्रकार चयनित अध्यापकों से विद्यार्थी बहुत कुछ सीखता है अर्थात इन चलते-फिरते पुस्तकालयों रूपी शिक्षकों को पाकर उसका विद्यार्जन का मार्ग सरल हो जाता है।
विश्विद्यालयों में मौखिकी के आधार पर पंहुचे शिक्षकों में कुछ प्रतिशत को छोड़कर अधिसंख्य किताबों के बोझ से दूरी बनाकर गुटबाजी,मठाधीशी,संगठन व पैसा बनाने के कार्य में अपने को संलग्न कर स्वायत्तशासी संस्था शब्द के छत्र में स्वच्छंद विचरण करते हैं-आखिर गुरु सेवा और रुपयों के बंडल की भी अपनी अलग प्रतिभा व ऊर्जा के भी तो मायने हैं।
खैर...यदि राष्ट्र के प्रधानसेवक व उनका संबंधित मंत्रालय सचमुच उच्च शिक्षा के उन्नयन के प्रति निष्ठावान है तो उसे विश्विद्यालयों में भी नियुक्तियों हेतु अखिल भारतीय लिखित परीक्षा के आयोजन हेतु कोई संस्था/आयोग गठित करना चाहिए और इसमें उत्तीर्ण प्रतिभागियों का लिखित परीक्षा में प्राप्तांक अंकों को शामिल करते हुए मौखिकी होनी चाहिए।मौखिकी में भी गुरु सेवा व पैसे के प्रवेश को वंचित रखने हेतु सिर्फ मेधा को ही सर्वोपरि रखते हुए मौखिकी हेतु कम अंकों को लिखित परीक्षा के अंकों के समानुपात में निर्धारित किया जाना चाहिए।यदि ऐसा न हुआ तो आने वाले दिनों में विश्विद्यालयों के शिक्षक महाविद्यालयों में नियुक्त शिक्षकों की तुलना में सिर्फ गुरु-चरण के चारण व धनबल से आचार्य बने वैशाखनंदनों की चीपों-चीपों के चारागाह के सदस्य मात्र बनकर रह जाएंगे और विश्विद्यालयों का समादर विश्व के शीर्षस्थ विश्विद्यालयों के सूची क्रमांक में पंहुचा अवनति क्रमांक 200 से बढ़कर 2000 पर पंहुच जाएगा।
समझे-प्रधानसेवक जी; भाईयों,बहनों का आपका राजनीतिक अलाप राष्ट्र की उच्च शिक्षा और शिक्षण को किस रसातल में पंहुचा रहा है शायद इसका भान आपको नहीं है।हो सकता हो मेरी ही समझने की भूल हो -शायद आपको वोट के दाम व इसे वसूलने के निमित्त अयोध्या के राम के अलावा मां वागीश्वरी और उनकी टूटती वीणा की कराह सुनायी ही नहीं दे रही.....।
"इल्म व तालीम के सौदे सरे बाज़ार तुम यूं न करो;
ख़ुदा की बंदगी का पाकीज़ा गुलशन है ये।"
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