वैज्ञानिक रूप से विकसित मानव की सबसे बडी भूल है कोरोना

वैज्ञानिक रूप से विकसित मानव की सबसे बडी भूल है कोरोना


 


कोरोना वायरस के संदर्भ में अगर आप सोचते हैं स्वयं को सबसे अलग-थलग करके इससे बच जाएंगे, तो यह वैज्ञानिक रूप से अति विकसित मानव की सबसे बडी भूल है। याद कीजिए कि चौदहवीं सदी में जब रेलगाड़ियां और हवाई जहाज़ नहीं थे उस समय एशिया से शुरू हुआ प्लेग पूरे यूरोपीय देशों तक फैल गया था और उस समय इसने साढ़े सात करोड़ लोगों की जान ले ली थी। जिसे इतिहास में ब्लैक डेथ के नाम से जाना जाता है। जब साल 1330-1350 में यह स्थिति थी, तो आज इक्कीसवीं सदी की भूमण्डलीकृत दुनिया में भूल ही जाइये कि आप सबसे कटकर बच जाएंगे।
वास्तव में ज़रूरत इससे ठीक विपरीत की है। हमें बंद होने की नहीं, अधिक से अधिक खुलने की आवश्यकता है। मनुष्यता को स्वयं को एक जाति मानना ही होगा, पूरी दुनिया को मिलकर इसका हल खोजना होगा, एक-दूसरे से निरंतर संवाद करना होगा, तभी इसका बेहतर ढंग से सामना किया जा सकता है। सरकारों पर इसकी बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है।
निश्चय ही यह अविश्वसनीय बात है। मेरे इस बात और तर्क को कोई भी विश्वास नहीं कर सकता। यह राजनीति की अग्निपरीक्षा है, और राजनीति ऐसी तमाम अग्नि परीक्षाओं में विफल रहती है। आज दुनिया अनेक राष्ट्रों में बंटी हुई है, उन सभी की अपनी-अपनी सरकारें हैं, उन सरकारों के अपने निजी हित और स्वार्थ हैं। मानव-संयोजन में ये सरकारें अत्यंत विफल सिद्ध होती हैं, वास्तव में वे विघटन की दृष्टि से सोचती हैं और मनुष्यता के निकृष्ट आयामों का आह्वान करके अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं। आज तो उलटे संरक्षणवादी प्रवृत्तियां प्रबल हो चुकी हैं, और सभी राष्ट्र अपना हित पहले सोचते हैं। इंडिया फ़र्स्ट और अमेरिका फ़र्स्ट के इस दौर में यह वैश्विक संकट सामने आया है, जबकि राजनेता अपनी सरकार बचाने की फ़िराक़ में रहते हैं और कोई भी आपदा सामने आने पर उनकी पहली प्रतिक्रिया उसके वजूद से इनकार करने की होती है।
ईरान में यही हुआ है। कोरोना वायरस का पता चलने के बावजूद वहां की सरकार लम्बे समय तक चुप रही। और अब वहां हालात नियंत्रण से बाहर होते जा रहे हैं। इटली में वे युवाओं को बचाने के लिए बूढ़ों को मर जाने दे रहे हैं। यह नात्सी-विचार की वापसी है, जिसमें ऑश्वित्ज़ के रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर सिलेक्शन-प्रक्रिया के दौरान कहा जाता था कि बूढ़ों को गैस चेम्बर में भेज दो और नौजवानों को काम पर लगाओ। उपयोगिता का सिद्धांत ऐसे ही काम करता है। उपयोगिता के सिद्धांत के कारण ही चीन, जो कि इस पूरी बीमारी की जड़ है से यह ख़बर आई थी कि कोरोना संक्रमण से ग्रस्त मनुष्यों को मार देने की तैयारी की जा रही है, ताकि रोग आगे न फैले। और फिर, जैविक-हथियारों के प्रयोग की कॉन्स्पिरेसी थ्योरी तो है ही।
दुनिया की सरकारें अंदरूनी मोर्चों पर प्रतिद्वंद्वी से राजनीतिक लड़ाइयों में लगी रहती हैं। अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसके भू-राजनीतिक हितों से संचालित गुट होते हैं। अमेरिका चीन से आने वाली किसी भी ख़बर पर भरोसा नहीं करता। ग्लोबल वॉर्मिंग को वह उसकी अर्थव्यवस्था को नष्ट करने की साज़िश बतलाता है और विकासशील अर्थव्यवस्थाएं कॉर्बन उत्सर्जन की अनिवार्यता के इस तर्क में उसका साथ देती हैं। मेरे हिसाब से आज कोरोना वायरस के चलते सभी सार्वजनिक प्रतिरोधों को निरस्त करके डिजिटल स्ट्राइक की बात ग्लोबल स्तर पर होनी चाहिए । आज हमें विज्ञान के साथ मिलकर खड़े होना है। किंतु नेता स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय-हितों की बात करते है, वह सार्वभौमिक हितों की बात करके चुनाव नहीं जीतते। राजनीति का सम्बंध विज्ञान से नहीं विभ्रम से है। तब वैश्विक महामारियों का सामना करने में भूमण्डलीकरण के साथ ही आधुनिक राष्ट्र-राज्यों का स्वरूप भी एक बाधा बन जाता है।
राजनीति से ऐसे अवसर पर कोई उम्मीद रखना बेकार है। धर्म की तब बात ही क्या करें। ईश्वर, जो कि कहीं नहीं है, की परिकल्पना मन बहलाव के लिए ठीक है, किंतु आपदाओं में वह मनुष्य की कोई मदद नहीं कर सकता। अतीत में उसने कभी नहीं की है और आगे भी नहीं करेगा। इस विराट सृष्टि में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे मनुष्य का सामान्य-बोध ही इकलौती उम्मीद है। इंटरनेट इसमें उसकी मदद कर सकता है, बशर्ते उसका उपयोग विवेक से किया जाए। मनुष्यता को तोड़ने के लिए नहीं, जोड़ने के लिए उसे बरता जाए। धर्म और राष्ट्र, जाति और समुदाय काल्पनिक परिघटनाएं हैं, मनुष्य ही वास्तविक है। उसका हित ही सर्वोपरि होना चाहिए।
मनुष्यता का इतिहास महामारियों का इतिहास रहा है। इतिहास में रोगों ने इतने लोगों की जान ली है, जितनी किसी और विपदा ने नहीं ली, दोनों विश्वयुद्धों ने भी नहीं। हैजा और चेचक, कोढ़ और तपेदिक, प्लेग और बुख़ार, सिफ़लिस और एड्स, भांति-भांति के फ़्लू, और हाल के सालों में उभरकर सामने आए इबोला, ज़ीका और अब कोरोना जैसे विषाणु- सर्वनाश की जितनी भी थ्योरियां प्रचलित हैं, उनमें अभी तक सबसे कारगर ये रोग और महामारियां ही साबित हुए हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग और आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस के ख़तरे भविष्य के गर्भ में हैं। एलीयन्स अभी तक धरती पर आए नहीं हैं। ज्वालामुखी लम्बे समय से सुषुप्त हैं। धरती से डायनोसोरों का ख़ात्मा कर देने वाले एस्टेरॉइड की जोड़ का अंतरिक्ष-पिण्ड फिर लौटकर नहीं आया है, पांच बार प्रलय होने के बावजूद। अभी तक के ज्ञात-इतिहास में महामारियां ही मनुष्य की सबसे बड़ी हत्यारिनी साबित हुई हैं।
हमारे सामने एपिडेमिक और पेन्डिमिक का भेद है। संक्रामक रोग और वैश्विक महामारी। एक तरफ़ इबोला है, जो इतनी तेज़ी से मनुष्य की हत्या करता है कि रोग को लम्बी दूरी तक फैलने का अवसर ही नहीं मिलता। दूसरी तरफ़ मीज़ल्स हैं, जिनकी संक्रामक-क्षमता अत्यंत व्यापक है, किंतु इनका वैक्सीन सरलता से उपलब्ध है। और फिर कोरोना जैसे वायरस हैं, जो परस्पर-सम्पर्क से प्रसारित होते हैं, उजागर होने में समय लेते हैं और अनुकूल स्थिति प्राप्त होने पर दस प्रतिशत के स्ट्राइक रेट से रोगियों का ख़ात्मा करते हैं। ग्लोबल अवेयरनेस सिस्टम ही इससे बचाव में काम आ सकता है। शुक्र है कि हमारे पास सूचना-प्रौद्योगिकी है, इसका विवेकपूर्वक उपयोग कीजिये और आपकी सरकारें क्या कह रही हैं, इससे ज़्यादा विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा जारी किए जा रहे अधिकृत प्रतिवेदनों और अपडेट्स पर भरोसा कीजिये।


 


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